Abhishek Maurya

Abhishek Maurya

Thursday, December 22, 2011

एक छोटी सी कहानी : सलिखा

मैं कोई सच्ची कहने तो नहीं कहने जा रहा, लेकिन मैं अपने आसपास की एक कहानी सुनना चाहता हुईं,,जो कभी न कभी आप लोगो ने भी जी होगी , आज वो  चुप- चाप सोच के ऑटो में बैठी थी की वो आज माँ से नहीं लड़ेगी, और उसने आज पूरा मन बना लिया था की वो आज कुछ भी हो जाये नहीं लड़ेगी, वैसे कल्पना करना बहुत मुश्किल होता है,मगर उसने यहाँ तक कह दिया, की अगर बिजली भी मेरे ऊपर गिर जाये या आसमान भी फट जाये, मगर तब भी मैं आज माँ से नहीं लड़ेगी, मगर होता क्या है, ये तो भगवन को ही मंजूर है,,
                                          सच कहा है किसी ने, की सब कुछ बदल सकता है मगर व्यव्हार इतना जल्दी बदलना बहुत मुश्किल, कोई नहीं जो होना था वो हुआ, आज वो माँ के साथ बहार निकली और हुआ भी क्या, वो बाज़ार तक चली भी गयी और लड़ाई बिलकुल भी नहीं हुई, वो बहुत खुश थी कि चलो आज बच गये, आज का खुद से किया हुआ वादा तो पूरा किया.....
                             इंसान तब भले ही न ज्यादा खुश हो की जब वो किसी से किया हुआ वादा पूरा करता है वो तब ज्यादा खुश होया है जब वो अपने से किया हुआ वादा पूरा निभाता है,,:

नाराज तब  वो नहीं होते जब उनकी सीरत पे सब मरते हैं,,
नाराज तो वो तब होते है,जब वो अपने को आईने में देखते है..

आज हुआ भी क्या, माँ से लड़ाई नहीं किया, ख़ुशी के मारे खुश, मगर भगवन को भी ज्यादा ख़ुशी बिलकुल नहीं पसंद थी, कहते हैं ज्यादा खुश नहीं होना चाहिए किसी न किसी की नज़र लग जाती है, तो बस, सुरु होने जा रहा था महायुद्ध. किसी की बात पे नहीं, बस माँ ने खाना पसंद का नहीं बनाया था. लो बस सुरु हो गयी अर्जुन की बाड़ों के प्रहार और भीष्म पितामह के वक्ष में घुश्ते हुए बांड...
                                                         मगर यहाँ बेटी ही हमेशा भिष पितामह बनाने को तैयार रहती थी, मगर हमेशा वो अपनी संस्कृति को सँभालते हुए, माँ को मनाने जाती थी.. किसी ने सच कहा है, एक उम्र लग जाये इस रिश्तें को समझने  में, माँ बेटी का रिश्ता भी बड़ा अजीब है, जो आँखों से बातें पढ़ लेता है,  और बेटी का मनाना  हाय- हाय, किसी की नज़र न लग जाये, बेटी का मनाना और माँ का मानना, औए दोनों का एक साथ बने हुए खाने को खाना, और फिर माँ का खुद से कहना, कि चल बेटी मैं तेरे लिए खुद से कुछ तेरी पसंद का बना देती हूँ..
                  वैसे सोचा जाये , तो ये बात अगर पहले हो जाती तो महायुद्ध होता ही क्यों, मगर इतना खुबसूरत पल कैसे कोई छोड़ सकता है, माँ-बेटी का रिश्ता मुझे तो लगता है की सिर्फ माँ-बेटी ही समझ सकती है, क्योंकि उनके अलावा उनके रिश्तें की एक पतली मगर दुनिया की सबसे मजबूत डोर कोई नहीं बांध सकता है....
                                     अरे इस चक्कर में मैं बेटी का नाम तो बताना ही भूल गया, उसका नाम " सलिखा " था, और वो पुरे अपने नाम पे गयी थी, व्यहवहार कैसे करते है और कैसे किये जाते है, ये दूर तक उसके रिश्तें वालों को पता था, ऐसी बेटी पाने के लिए तो ज़माना तरसता था, सब उसके गुण गया करते थे, मगर उसी के घर वाले ऐसे थे की कोई देखता भी नहीं था, मगर उसको भी दुनिया वालों से कोई मतलब नहीं होता था, वो तो बस अपनी धुन में लगी रहती थी, अपनी माँ के बाल बनाना , उनके कपडे धोना, उनके खाना बनाते वक़्त मदद करना, उनके वो सरे काम जो वो खुद कर सकती थी वो सारे करती थी, और वो भी ख़ुशी-ख़ुशी, किसी को उसको कहने की कोई जरुरत ही नहीं पड़ती थी,
                                             इतने में पीछे से एक आवाज आई, वो आज ऐसी बेरंग थी की शायद कोई आदमी भी  इतनी बुरी आवाज से किसी जानवर को भी नहीं कहता था, और वो ऐसे खाने की प्लेट ऐसे फेक के जा रही  है, जैसे किसी कुत्ते को खाना दे rahi हो, मगर क्या जमाना भी आ गया है, पागलखाने में पागलों से कैसे बात की जाती है, ये उस नर्स को क्या पता, हाँ सलिखा पागल थी, और  हो भी क्यों न हो उसे अपनी माँ से इतना प्यार जो था.....
             उसकी माँ  एक कार एक्सिडेंट में उस से रूठ के चली गयी थी और आज तक वापस नहीं आई थी, वो आज भी माँ से बातें किया करती है, लड़ाई जैसे वो रोज किया करती थी आज भी करती है, बस कुछ नयी तहजीब  उसके अन्दर आ गयी है,, वो अपनी माँ का हर वक़्त ख्याल रखने की कोशिश करती है, उनके बाल बनाती  है, उनके कपडे धोती है, उनके सारे काम करती है,,,,
                                                 क्योंकि वो चाहती है की उसकी माँ आ जाये, और फिर से वाही लड़ाई करे जो पहले किया करती थी, उसकी माँ आ जाये और उसके लिए फिर वाही खाना बनाये जो उसके लिए कभी बनाया करती थी, पागल है न, क्या करें ,, बस थोडा प्यार चाहती है माँ का एक बार फिर......
बस थोडा प्यार चाहती है माँ का एक बार फिर......

वो दर्द सिने में छुपा के रखा है कैसे बताऊँ मैं माँ,,,
कोई नहीं है समझने वालों इसीलिए चुपचाप बैठा हुई हूँ  मैं माँ,,
अँधेरा है चारो ओर, कोई नहीं हैं सुनने वाला,,
एक बार आओं माँ, बहुत बातें करनी है,,
फिर से वही चोर-सिपाही खेलना है,फिर से  वही चिरिया उढ़ खेलना है,,
आज फिर से तेरी गोद में हमेशा के लिए सोना है,,,
आज फिर से तेरी गोद में हमेशा के लिए सोना है.......


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