Abhishek Maurya

Abhishek Maurya

Sunday, November 18, 2012

आज रात मुझे ये जरुर सिखला देना part4

this poem is again continued from my one of the creations titled as आज रात मुझे ये जरुर सिखला देना।।।

वो कहती है कि  इन अश्रों को बहाना अब छोड़ दो,,
ये आंसूं चेहरे पे अब अच्छे लगते नहीं ,,
मैंने कहा ये भी मुझको ठीक है,,
मगर मेरे छुपे हुए आंसुओं की कीमत क्या लौटा पाओगी तुम,,
मेरी हँसी के पीछे छुपे हुए राज को क्या बतला पाओगी तुम ,,
बस इस बात को आज मुझे बतला देना,,
आज रात ये मुझको सिखला देना।।।।


वो कहती है कि भूल जाओ सब कुछ जो हमारे बीच में हुआ था,,
मैं अपने घर को चुनती हु ,, तुमको मैं छोडती हु,,
मैंने कहा ये भी मुझको ठीक है,,
मगर बीतें कुछ सालों जो व्रत तुमने मेरे लिए रखे थे,,
उनका क्या मोल था,,क्या ये तुम जान पाओगी ,,
क्या उनका मोल तुम चुका पाओगी ,,
सोलह सोमवार के व्रत जो तुमने शिव के सामने मुझको पाने के लिए रखे थे,,
क्या उस इश्वर से नज़र तुम मिला पाओगी ,,

बस इस बात को आज मुझे बतला देना,,
आज रात ये मुझको सिखला देना।।।।


वो कहती है कि राहों में जो कोई अच्छा मिले,,
उसको तुम अपना लेना,,
मैंने कहा ये भी मुझको ठीक है,,
मगर जो रीति - रिवाजो के बीच हमारा नाता थ,,
क्या उनको तोड़ पाओगी तुम,,
जो सलिखे सिखाये थे मैंने तुमको,,
क्या उनको भूल पाओगी तुम,,
अगर भूल जाओ ,,तो वो सारे तरीके मुझे बतला देना,,
आज रात ये मुझको जरुर  सिखला देना।।।।

loving you till the last breath of my life,,AMEN...








Sunday, November 4, 2012

है मेरे से बड़ा कोई दुखी इस दुनिया में,,

दिन कहता रात खुश है,,
तपन झेलेगा कोई मेरे जैसा ,,
तो जीना सिख जायेगा,,,

है  मेरे से बड़ा कोई दुखी इस दुनिया में,,
क्या कोई मेरे जैसा जीना सीख पायेगा ...

रात कहती दिन कितना खुश है,,
इतनी ठंडक क्या कोई सह पायेगा,,
जो कद्र दिन को मिलती है,,
क्या कोई वही रुतबा मुझको दे पायेगा ,,
हु शालीन मैं ,,क्या यही दोष है मेरा ,,

है  मेरे से बड़ा कोई दुखी इस दुनिया में,,
क्या कोई मेरे जैसा जीना सीख पायेगा ...

समंदर कहता मैं थक चूका हु ,,
भार सहते-सहते इस दुनिया का,,
दुनिया भर की नदियों से कह दो,,,
की अब दम नहीं बचा मुझे इतनी विपदा सहने का ,,
ग्लोबल वार्मिंग हो ,,या भूकंप के झटके,,
चाहे सुनामी हो या सैंडी के झटके,,,
सब मुझको झेलना पड़ता है,,

है  मेरे से बड़ा कोई दुखी इस दुनिया में,,
क्या कोई मेरे जैसा जीना सीख पायेगा ...

नदियाँ कहती सभ्यताओं का निर्माण मुझसे हुआ है,,
मेरे बिना जीवन नहीं है,,
मैं थक चुकी हु चलते -चलते ,,
गंदिगियों को समर्जित -विसर्जित करते -करते,,
मेरी मृत्यु समंदर में ही निहित है,,
मेरा अस्तित्व विहीन प्राण है,,,
क्या जीना मेरा इतना ही बेकार है,,

है  मेरे से बड़ा कोई दुखी इस दुनिया में,,
क्या कोई मेरे जैसा जीना सीख पायेगा ...

दुनिया के असंख्यों प्राणियों की यही एक भाषा है ,,
सब अपने ही अस्तित्व को विवेचित कर के ही बाधित है,,
इंसान हु ,,शायद इंसान से प्यार करने की ही भूल की है,,
किसी और के जैसे बनने में ,,खुद की इंसानियत को भूलते जा रहे हम,,
खुद की शक्शियत से शिकायत करते-करते,,,
इस दुनिया में किस लिए आये थे ,,भूलते जा रहे हम,,,
इस दुनिया की भीड़-भाड़ में खुद को धुंडते जा रहे हम,,
और हर समय एक ही लफ्ज कहते जा रहे हम,,,

है  मेरे से बड़ा कोई दुखी इस दुनिया में,,
क्या कोई मेरे जैसा जीना सीख पायेगा ...
और अगर मेरे जैसा कोई जीना सिख पायेगा,,,
तो असलियत में जीना सिख जाएगा ,,
तो असलियत में जीना सिख जाएगा ....