नदी किनारे बैठे-बैठे ,
मैंने देखा जल का खेल,
अपनी उठती लहरों से,
काट रहा था पर्वत शैल,
कई भंवर थे कई तरंगे,
आपस में टकराती थी,
इधर उधर से जो कुछ मिलता,
अपनी उठती लहरों से,
उसको bhi अपने संग ले जाती थी,
नदी किनारे बैठे बैठे.......
देख के उनको डर लगता था,
कैसी थी डरावनी वो ,
इतनी ताकतवर थी वो ,
कि पत्थर के भी टुकरे कर जाती थी ,
नदी किनारे बैठे बैठे.....
इतने में पीपल का पत्ता,
आ बैठा इन लहरों पर,
हस्ती से मस्ती से ,
झूमता गाता चलता रहता ,
नदी किनारे बैठे बैठे.....
मैंने पूछा उससे युहीं,
क्या करता तू इन लहरों पर,
इतने पे वो तुनक के बोला,
केवल नर्तन का लोभी,
आ बैठा इन लहरों पर,
नदी किनारे बैठे-बैठे.....
मैंने पूछा क्या भविष्य हैं तेरा,
इतने पे वो अहेम से बोला,
आगे मुझ पर क्या बीतेगी,
इसका मुझको ज्ञान नहीं,
आगे क्या हैं मेरा भविष्य,
इसका मुझको भान नहीं,
नदी किनारे बैठे-बैठे.....
इतने में पीपल का पत्ता,
हाई भंवर में आन गिरा,
मुझे बचाओ,मुझे बचाओ,
कहलाया वह दिन बड़ा,
नदी किनारे बैठे-बैठे.....
जिनका लक्ष्य नहीं जीवन में,
ऐसे ही खों जाते हैं,
जैसे लाखो-लाखो पत्ते,
पानी में बह जाते हैं,
लिसे लाखो-लाखो पत्ते,
पानी में बह जाते हैं,
नदी किनारे बैठे-बैठे,
मैंने देखा खुदा का खेल!!!!!
मैंने देखा खुदा का खेल!!!!!
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