ये इश्क भी कितना गैर परवाह है,,
कि इसको सिर्फ अपना ही एक अक्स दीखता है ,,
दूर से कितना खूबसूरत सा आइना सा है लगता ,,
पास जाकर एक आंसूं की एक बूँद पड़ने से ,,
अक्स यूँ बिखर जाता ,,कि अक्स नहीं,,
वो तो जल का एक नया अविरम है,,,
जो भूम-भूम धूमिल होता है,,
आज किसी और के संग,,
कल किसी और के संग होता,,,
ये इश्क भी कितना गैर परवाह है....
दूर से ये एक सुन्दर सा पुष्प सा है लगता,,
पास जाकर एक काटों का भ्रमजाल सा आविर्भूत सा होता,,
भ्रम की एक मुस्कान से सबको अपनी ओर आकर्षित कर ले जाता,,
भ्रमजाल के एक बार चकर से की नहीं छुट पाता ,,
इतना आकर्षित ये भ्रमजाल है कि ,,
इसके जाल से कोई नहीं निकलना चाहता ,,
फसना हर कोई है चाहता,,
ये इश्क है ही एक ऐसी चीज,,
बस हर कोई किसी न किसी से इश्क करना है चाहता,,,
ये इश्क भी कितना गैर परवाह है,,
घमंडी है ये ,,अपने आगे किसी और की नहीं चलने देता,,
घुमाता है अपने आगे अपनी ही एक नयी धुन में,,
हमे बस नाचने को मजबूर ही कर देता,,,
ये इश्क भी कितना गैर परवाह है.....
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