अपने विचारों के भंवर में ,,
कहीं डूबता कहीं उमरता ,,
में अपने विचारों के भाव्यजाल में,,
कहीं सूबता ध्रव्यजाल में मै ,,
रास्ता खोता रहा है मेरा,,
कहीं धीमा ,कहीं सुस्त जाल में ,,
मंजिले अधर सी रह गयी है मेरी ,,
अब इन विचारों के भाव्यजाल में,,
राहें जो चुनता हु सीधी -साधी सी मैं ,
वो बदलती है एक मकरी के जाल में,,
कोई नहीं है बतलाने वाला ,कोई नहीं है बचाने वाला,,
मुझे इन ध्रव्यजाल से,,
राहे जो चुनी थी मैंने,,
भरोषा न था की वोही मुझको बेह्कएँगी ,,
टूट चूका हु मैं अब यहाँ पे ,,
की अब दीखता नहीं,,
मेरा भविष्य विस्मयी है कहाँ पे।.....
(to be continued...)
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